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बृ॒हन्त॒ इद्भा॒नवो॒ भाऋ॑जीकम॒ग्निं स॑चन्त वि॒द्युतो॒ न शु॒क्राः। गुहे॑व वृ॒द्धं सद॑सि॒ स्वे अ॒न्तर॑पा॒र ऊ॒र्वे अ॒मृतं॒ दुहा॑नाः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bṛhanta id bhānavo bhāṛjīkam agniṁ sacanta vidyuto na śukrāḥ | guheva vṛddhaṁ sadasi sve antar apāra ūrve amṛtaṁ duhānāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

बृ॒हन्तः॑। इत्। भा॒नवः॑। भाःऽऋ॑जीकम्। अ॒ग्निम्। स॒च॒न्त॒। वि॒ऽद्युतः॑। न। शु॒क्राः। गुहा॑ऽइव। वृ॒द्धम्। सद॑सि। स्वे। अ॒न्तः। अ॒पा॒रे। ऊ॒र्वे। अ॒मृतम्। दुहा॑नाः॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:1» मन्त्र:14 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:15» मन्त्र:4 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:14


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (बृहन्तः) महान् (अमृतम्) कारणरूप से नाशरहित जल को (दुहानाः) पूर्ण करते हुए (भानवः) किरण वा दीप्ति (विद्युतः) बिजुलियों के (न) समान (शुक्राः) शुद्ध (सदसि) सभा में (वृद्धम्) विद्या और अवस्था से जो अतीव प्रशंसित उसके समान आत्मा को (गुहेव) बुद्धिस्थ जीव के समान (भाऋजीकम्) दीप्तियों में सरल (अग्निम्) अग्नि को (सचन्त) सम्बन्ध वा मेल करते हैं जो (अपारे) अगाध द्यावापृथिवी (स्वे) निज सम्बन्ध करनेवाले (ऊर्वे) लोक संघर्षण करनेवाले अभिव्याप्त होकर (अन्तः) बीच में विराजमान हैं (इत्) उन्हीं को जानो ॥१४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो अग्नि सर्वत्र स्थित सूर्य वा भौमरूप से प्रसिद्ध बिजुली रूप से गुप्त मेघादि पदार्थों का निमित्त है, उसको जानकर अभीष्ट सिद्ध करना चाहिये ॥१४
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या ये बृहन्तोऽमृतन्दुहाना भानवो विद्युतो न शुक्राः सदसि वृद्धमिवात्मानं गुहेव भाऋजीकमग्निं सजन्त येऽपारे स्वे ऊर्वेऽभिव्याप्यान्तर्विराजेते तानिदेव विजानीत ॥१४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहन्तः) महान्तः (इत्) इव (भानवः) किरणदीप्तयः (भाऋजीकम्) भासु दीप्तिषु सरलम् (अग्निम्) पावकम् (सचन्त) सचन्ति समवयन्ति (विद्युतः) स्तनयित्नवः (न) इव (शुक्राः) शुद्धाः (गुहेव) यथा गुहायां बुद्धौ स्थितं जीवम् (वृद्धम्) विद्यावयोभ्यां ज्येष्ठम् (सदसि) सभायाम् (स्वे) स्वसम्बन्धिन्यौ (अन्तः) मध्ये (अपारे) अगाधे द्यावापृथिव्यौ। अपारे इति द्यावापृथिवीना०। निघं०३। ३०। (ऊर्वे) हिंसके (अमृतम्) कारणरूपेण नाशरहितं जलम् (दुहानाः) प्रपूरयन्तः ॥१४॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। योऽग्निः सर्वत्र स्थितः सन् सूर्यभौमरूपेण प्रसिद्धो विद्यद्रूपेण गुप्तो मेघादिनिमित्तोऽस्ति तं विज्ञायाभीष्टं साधनीयम् ॥१४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो अग्नी, सूर्य किंवा भूमीरूपाने प्रसिद्ध, विद्युतरूपाने गुप्त, मेघ इत्यादी पदार्थांचे निमित्त आहे, त्याला जाणून अभीष्ट सिद्ध करावे. ॥ १४ ॥